Thursday 6 January 2022

MIRJA RAFI SODA KE MASHUR SHER



Shayar ki Kalam se dil ke Arman...






सौदा का जन्म वर्ष पक्का नहीं है लेकिन कुछ तज़किरों में ११२५ हिजरी (यानि १७१३-१७१४ ईसवी) बताया गया है। वे दिल्ली में पैदा और बड़े हुए और मुहम्मद शाह के ज़माने में जिए। धर्म के नज़रिए से उनका परिवार शिया था। उनके पहले उस्ताद सुलयमान क़ुली ख़ान 'विदाद' थे। शाह हातिम भी उनके उस्ताद रहे क्योंकि अपने छात्रों की सूची में उन्होंने सौदा का नाम शामिल किया था। मुग़ल बादशाह शाह आलम सौदा के शागिर्द बने और अपनी रचनाओं में ग़लतियाँ ठीक करवाने के लिए सौदा को दिया करते थे। सौदा मीर तकी 'मीर' के समकालीन थे। ६० या ६६ की आयु में वे दिल्ली छोड़ नवाब बंगश के साथ फ़र्रूख़ाबाद आ बसे और फिर अवध के नवाब के साथ फैज़ाबाद आ गए। जब लखनऊ अवध रियासत की राजधानी बन गया तो वे नवाब शुजाउद्दौला के साथ लखनऊ आ गए। ७० की आयु के आसपास उनका लखनऊ में ही देहांत हुआ।


सौदा को क़सीदों और तंज़ के सबसे अच्छे शायरों में गिना जाता है। शुरू में वे फ़ारसी में ही लिखा करते थे लेकिन अपने उस्ताद ख़ान-ए-आरज़ू का कहा मानकर उर्दू में भी लिखने लगे। १८७२ में उनकी कुल्लियात को बंगाल रिसाले के मेजर हेनरी कोर्ट (Major Henry Court) ने अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। उनके कुछ चुने शेर इस प्रकार हैं:

१.

“ किसी का दर्द-ए-दिल प्यारे तुम्हारा नाज़ क्या समझे


जो गुज़रे सैद के दिल पर उसे शाहबाज़ क्या समझे ”


—सौदा


२.

“ इश्क़ ज़रा भी अगर हो तो उसे कम मत जान


होके शोला ही बुझे है ये शरार आख़िरकार ”


—सौदा


३.

“ ये रूतबा जाह-ए-दुनिया का नहीं कम किसी मालज़ादी से


के इस पर रोज़-ओ-शब में सैकड़ों चढ़ते-उतरते हैं ”


—सौदा


४.

“ शैख़ ने उस बुत को जिस कूचे में देखा शाम को


ले चराग़ अब ढूंढें है वाँ ता-सहर इस्लाम को ”


—सौदा


५.
“ सावन के बादलों की तरह से भरे हुए


ये वो नयन हैं जिनसे की जंगल हरे हुए ”


—सौदा


GAJAL


जो ज़िक्र बाद मेरे होगा जांनिसारों का
करोगे याद मुझी को कि वो फ़लाना था

बातें कहां गईं वो तेरी भोली-भालियां
दिल ले के बोलता है जो तू अब ये बोलियां




'सौदा' के ज़र्द चेहरे को शोख़ी की राह से
कहता है तेरा रंग तो अब कुछ निखर चला

तेरी गली से गुज़रता हूं इस तरह ज़ालिम
कि जैसे रेत से पानी की धार गुजरे है

दिल पिरोया तो है तुझे ज़ुल्फ़ में हमने लेकिन
ताब गौहर की न लावेगा ये तार आख़िरकार


यों सूरतो-सीरत से बुत कौन सा क़ाली है
पर राह मुहब्बत की दोनों से निराली है

ख़्वाह काबे में क़्वाह मैं बुतखाने में
इतना समझूं कि मेरे यार कहीं देखा है

मिट गए वो शोर दिल के, आह तब आई बहार
वरना क्या-क्या हम भी करते शहर, वीराने में धूम
रुख़सत ऐ बागबां कि तनिक देख लें चमन
जाते हैं वां जहां से फिर आया न जाएगा

ज़िंदगी महबूब, क्या-क्या है इसमें महबूबियां
बेवफ़ाई ने पर इसकी मेट दी सब ख़ूबियां


कोह का प्यारे उठाना ज़ोर मर्दों का नहीं
जो उठावे मुझ सा दिल, समझें उसे मरदाना हम

आवारगी से ख़ुश हूं मैं अपनी कि बादे-मर्ग
हर ज़र्रा मेरी ख़ाक का होवे हवापरस्त

 
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