ख़ुदा-ए-सुखन मोहम्मद तकी उर्फ मीर तकी "मीर" (1723 - 20 सितम्बर 1810) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। मीर को उर्दू के उस प्रचलन के लिए याद किया जाता है जिसमें फ़ारसी और हिन्दुस्तानी के शब्दों का अच्छा मिश्रण और सामंजस्य हो। अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा था। इस त्रासदी की व्यथा उनकी रचनाओं मे दिखती है। अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह उन्होने कहा था-
हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया
जन्म :१७२३
मृत्यु :१८१०
दीवान-ए-मीर से ‘मीर तक़ी मीर’ के 10 बड़े शेर
मीर तक़ी मीर उर्दू और फ़ारसी के एक अज़ीम शाइर हैं, उन्हें ख़ुदा-ए-सुख़न कहा जाता है। पेश हैं दीवान-ए-मीर से कुछ चुनिंदा शेर
मिरे सलीके से, मेरी निभी मुहब्बत में
तमाम उम्र, मैं नाकामियों से काम लिया
कुछ नहीं सूझता हमें, उस बिन
शौक़ ने हमको बेहवास किया
देगी न चैन लज़्ज़त-ए-ज़ख़्म उस शिकार को
जो खा के तेरे हाथ की तलवार, जाएगा
उनने तो मुझको झूंटे भी न पूछा एक बार
मैंने उसे हज़ार जताया, तो क्या हुआ
दिल की वीरानी का क्या मज़्कूर
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया
सख़्त काफ़िर था जिनने पहले मीर
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया
मह ने आ सामने, शब याद दिलाया था उसे
फिर वह ता सुब्ह मिरे जी से भुलाया न गया
गुल ने हरचन्द से कहा, बाग़ में रह, पर उस बिन
जी जो उचटा, तो किसी तरह लगाया न गया
शहर-ए-दिल आह अजब जाय थी, पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया न गया
गलियों में अब तलक तो, मज़्कूर है हमारा
अफ़सान-ए-मुहब्बत, मशहूर है हमारा
दिल्ली में आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें
था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का
मेरे रोने की हक़ीक़त जिसमें थी
एक मुद्दत तक वह काग़ज नम रहा
रात हैरान हूं, कुछ चुप ही मुझे लग गयी मीर
दर्द-ए-पिन्हां थे बहुत, पर लब-ए-इज़हार न था
आए अगर बहार तो अब हम को क्या सबा
हमसे तो आशियां भी गया और चमन गया
हमसे तो आशियां भी गया और चमन गया
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