Thursday 28 April 2022

अल्लामा इक़बाल के शेर (ALLAMA IQBAL KE FAMOUS SHER)

Shayar ki Kalam se dil ke Arman...

ALLAMA IQBAL KE FAMOUS SHER




इक़बाल मसऊदी ने हिन्दोस्तान की आज़ादी से पहले "तराना-ए-हिन्द" लिखा था, जिसके प्रारंभिक बोल- "सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा" कुछ इस तरह से थे। उस समय वो इस सामूहिक देशभक्ति गीत से अविभाजित हिंदुस्तान के लोगों को एक रहने की नसीहत देते थे और और वो इस गीत के कुछ अंश में सभी धर्मों के लोगों को 'हिंदी है हम वतन है' कहकर देशभक्ति और राष्ट्रवाद की प्रेरणा देते है।

जन्म 9 नवम्बर 1877
सियालकोट, पंजाब, ब्रितानी भारत
मृत्यु 21 अप्रैल 1938 (उम्र 60)
लाहौर, पंजाब, भारत



अन्य नाम अल्लमा इक़बाल मसऊदी



ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है


माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतज़ार देख

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा


दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूं या रब
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो


फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है


सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसितां हमारा


ढूंढ़ता फिरता हूं मैं 'इक़बाल' अपने आप को
आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूं मैं


मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन


नशा पिला के गिराना तो सब को आता है
मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी


दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है

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Wednesday 20 April 2022

SHAMS TABRIZI KI MAHSURE SHER/GAJAL

Shayar ki Kalam se dil ke Arman...

SHAMS TABRIZI KI MAHSURE SHER/GAJAL




शम्स तबरेज़ी की जीवनी पर बहुत कम भरोसेमंद स्रोत उपलब्ध हैं, यह रूमी की भी स्थिति है। कुछ लोग के ख़्याल हैं कि वे किसी जाने माने सूफ़ी नहीं थे, बल्कि एक घुमंतू क़लन्दर थे। एक और स्रोत में यह भी उल्लेख मिलता है कि शम्स किसी दादा हशीशिन सम्प्रदाय के नेता हसन बिन सब्बाह के नायब थे। बाद में शम्स के वालिद ने सुन्नी इस्लाम क़ुबूल कर लिया। लेकिन यह बात शक्की होते हुए भी दिलचस्प इस अर्थ में है कि हशीशिन, इस्माइली सम्प्रदाय की एक टूटी हुई शाख़ थी। और इस्माइली ही थे जिन्होंने सबसे पहला क़ुरआन के ज़ाहिरा (manifest) को नकारकर अव्यक्त अथात् छिपे हुए अर्थों पर ज़ोर दिया, और रूमी को ज़ाहिरा दुनिया को नकारकर रूह की अन्तरयात्रा की प्रेरणा देने वाले शम्स तबरेज़ी ही थे।


1.बहुत कम बोलना अब कर दिया है

कई मौक़ों पे ग़ुस्सा भी पिया है


तुम हम से पूछते हो क्या कि हम ने

बहुत सा काम नज़रों से लिया है


बहुत गर्मी पड़ी अब के बरस भी

मई और जून मुश्किल में जिया है


रफ़ू आँचल पे तेरे है तो सुन ले

गरेबाँ चाक हम ने भी सिया है


तुम्हारी गुफ़्तुगू बतला रही है

किसी से इश्क़ तुम ने भी किया है


बहुत शीर-ओ-शकर हैं हम अदब में

तो 'शम्स' हम में कोई क्या माफ़िया है




2.जो चाहते हो कि मंज़िल तुम्हारी जादा हो

तो अपना ज़ेहन भी इस के लिए कुशादा हो


वो याद आए तो अपना वजूद ही न मिले

न याद आए तो मुझ को थकन ज़ियादा हो


पहाड़ काट दूँ सूरज को हाथ पर रख लूँ

ज़रा ख़याल में शामिल अगर इरादा हो


समझ सको जो ज़माने के तुम नशेब-ओ-फ़राज़

तो अपने अहद के बच्चों से इस्तिफ़ादा हो


ये सोचता हूँ वो जिस दम मिरी तलाश करे

हक़ीक़तों का मिरे जिस्म पर लिबादा हो


है जुस्तुजू मुझे इक ऐसे शख़्स की यारो

जो ख़ुश-मिज़ाज भी हो और दिल का सादा हो


3.किसी की चाह में दिल को जलाना ठीक है क्या


ख़ुद अपने आप को यूँ आज़माना ठीक है क्या


शिकार करते हैं अब लोग एक तीर से दो

कहीं निगाह कहीं पर निशाना ठीक है क्या


बहुत सी बातों को दिल में भी रखना पड़ता है

हर एक बात हर इक को बताना ठीक है किया


गुलाब लब तो बदन चाँद आतिशीं रुख़्सार

नज़र के सामने इतना ख़ज़ाना ठीक है क्या


तमाम शब मिरी आँखों का ख़्वाब रहते हो

तमाम रात किसी को जगाना ठीक है क्या


कभी बड़ों की भी बातों का मान रक्खो 'शम्स'
हर एक बात में अपनी चलाना ठीक है क्या

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