Wednesday, 15 September 2021

DAAG DEHLVI KE MASHUR SHER

Shayar ki Kalam se dil ke Arman...




नवाब मिर्जा खाँ 'दाग़' , उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे। इनका जन्म सन् 1831 में दिल्ली में हुआ। इनके पिता शम्सुद्दीन खाँ नवाब लोहारू के भाई थे। जब दाग़ पाँच-छह वर्ष के थे तभी इनके पिता मर गए। इनकी माता ने बहादुर शाह "ज़फर" के पुत्र मिर्जा फखरू से विवाह कर लिया, तब यह भी दिल्ली में लाल किले में रहने लगे। यहाँ दाग़ को हर प्रकार की अच्छी शिक्षा मिली। यहाँ ये कविता करने लगे और जौक को गुरु बनाया। सन् 1856 में मिर्जा फखरू की मृत्यु हो गई और दूसरे ही वर्ष बलवा आरंभ हो गया, जिससे यह रामपुर चले गए। वहाँ युवराज नवाब कल्ब अली खाँ के आश्रय में रहने लगे। सन् 1887 ई. में नवाब की मृत्यु हो जाने पर ये रामपुर से दिल्ली चले आए। घूमते हुए दूसरे वर्ष हैदराबाद पहुँचे। पुन: निमंत्रित हो सन् 1890 ई. में दाग़ हैदराबाद गए और निज़ाम के कविता गुरु नियत हो गए। इन्हें यहाँ धन तथा सम्मान दोनों मिला और यहीं सन् 1905 ई. में फालिज से इनकी मृत्यु हुई। दाग़ शीलवान, विनम्र, विनोदी तथा स्पष्टवादी थे और सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करते थे।

गुलजारे-दाग़, आफ्ताबे-दाग़, माहताबे-दाग़ तथा यादगारे-दाग़ इनके चार दीवान हैं, जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। 'फरियादे-दाग़', इनकी एक मसनवी (खंडकाव्य) है। इनकी शैली सरलता और सुगमता के कारण विशेष लोकप्रिय हुई। भाषा की स्वच्छता तथा प्रसाद गुण होने से इनकी कविता अधिक प्रचलित हुई पर इसका एक कारण यह भी है कि इनकी कविता कुछ सुरुचिपूर्ण भी है।




प्रेम के हर अंदाज को अपने शब्द देने वाले शायरों में दाग़ देहलवी का नाम महत्वपूर्ण है, प्रेम के हर रंग को उन्होंने अपनी शायरी में पिरोया।




1.ख़ुदा रखे मुहब्बत ने किये आबाद घर दोनों
मैं उनके दिल में रहता हूं वो मेरे दिल में रहते हैं

कोई नामो-निशां पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस दाग़ है और आशिकों के दिल में रहते हैं

सितम ही करना, जफ़ा ही करना, निगाहे-उल्फ़त कभी न करना


उर्दू कविता, ग़ज़ल के अमिट हस्ताक्षर दाग़ देहलवी ने रोमांटिक शायरी को नई ऊंचाई दी। भाषा की स्वच्छता तथा प्रसाद गुण होने से इनकी कविता अधिक प्रचलित हुई पर इसका एक कारण यह भी है कि इनकी कविता कुछ सुरुचिपूर्ण भी है।

ये मजा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता

सितम ही करना, जफ़ा ही करना, निगाहे-उल्फ़त कभी न करना
तुम्हें कसम है हमारे सिर की, हमारे हक़ में कभी न करना

जलवे मेरी निगाह में कौनो मकां के हैं



एक समय तक जब तमाम शायर फ़ारसी में लिखना ही शायर होने की महत्वपूर्ण पहचान मानते थे तब दाग़ साहब ने अपने शायराने मिज़ाज को फ़ारसी जकड़बंदी मुक्त किया और उस समय की आम बोलचाल की भाषा उर्दू के आसान शब्दों में पिरोया था।

जलवे मेरी निगाह में कौनो मकां के हैं
मुझसे कहां छुपेंगे वो ऐसे कहां के हैं

राह पर उनको लगा लाये तो हैं बातों में
और खुल जाएंगे दो-चार मुलाकातों में

क्या जुदाई का असर है कि शबे तन्हाई



उस समय यह बहुत कठिन काम था लेकिन दाग़ ने न सिर्फ न चुनौतियों का सामना किया बल्कि उर्दू शायरी पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।

क्या जुदाई का असर है कि शबे तन्हाई
तेरी तस्वीर से नहीं मिलती सूरत मेरी

लूटेंगी वो निगाहें हर कारवाने दिल को
जब तक चलेगा रस्ता ये रहजनी रहेगी

चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई


न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबां आते-आते

आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता


चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
ताड़ ली मज्लिस में सब ने सख़्त रुस्वाई हुई

ख़बर सुन कर मेरे मरने की वो बोले रक़ीबों से


ख़बर सुन कर मेरे मरने की वो बोले रक़ीबों से
ख़ुदा बख़्शे बहुत सी ख़ूबियाँ थीं मरने वाले में

तुम को चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझ को
दूसरा कोई तो अपना सा दिखा दो मुझ को

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

देखना हश्र में जब तुम पे मचल जाऊँगा
मैं भी क्या वादा तुम्हारा हूँ कि टल जाऊँगा

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