Faiz Ahamad Faiz ke Famous Sher
मृत्यु की जगह और तारीख: 20 नवंबर 1984, लाहौर, पाकिस्तान
पत्नी: एलिस फ़ैज़ (विवा. 1941–1984)
शिक्षा: गवर्नमेन्ट कॉलेज, पंजाब विश्वविद्यालय, Govt Murray College Sialkot, ओरिएंटल कालेज
फ़िल्में: द डे शैल डॉन, आगमन
फ़ैज अहमद फ़ैज़ जब यह कहते हैं कि ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे मेहबूब न मांग’ तो सबसे पहला सवाल यही उठता है कि वह शख़्स कौन है, जो अपनी महबूबा को अपनी मजबूरी बताते हुए कह रहा है,
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
क्या यह सिर्फ़ फ़ैज अहमद फ़ैज की आवाज़ है? क्या यह सिर्फ़ उन्हीं का ख़्याल या नज़रिया है? शायद नहीं। यह आवाज़ संभवतः हमारे युगबोध की आवाज़ है, हमारे समय की सच्चाईयों और बदलते ज़रुरत की आवाज़ है। यह वह आवाज़ है जो साहित्य के मयारों को बदलने की बात करती है, उसके उद्देश्यों को बड़ा करके देखने की माँग करती है। लेकिन यह बदलाव इतना अचानक और आक्रामक भी नहीं है कि समूची परम्परा से हमारा नाता ही टूट जाए, बल्कि इसमें पुराने के स्वीकार के साथ उसे नया करने का इसरार है।
और भी दुख हैं, ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा
रवायत के प्रति रुमान तो इतना कि ग़ालिब और दाग़ के मिसरे भी फ़ैज के यहां मिलते हैं लेकिन वे भी यहाँ आकर अपने नये मायने पाते हैं -
तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शब-ए-ग़म बुरी बला है
हमें ये भी था ग़नीमत
जो कोई शुमार होता
हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता
या फिर
जो गुज़रते थे 'दाग़' पर सदमे
अब वही कैफ़ियत सभी की है
यह सभी की कैफ़ियत की सोच ही फैज़ को आवाम की अवाज़ का शायर बनाती है, जब भी कहीं दमन, शोषण था एकाधिकार का ख़तरा दिखाई देता है, बरबस यह निकल ही आता है-
बोल, कि लब आजा़द हैं तेरे
बोल, जुबाँ अब तक तेरी है
तेरा, सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल, कि जाँ अब तक तेरी है
फ़ैज की शायरी व्यक्तिगत हताशा, इश्क़ या उम्मीदी की शायरी नहीं है, यह व्यापक जनता के मोहभंग की आवाज़ है, जो आज़ादी की सुबह भी यह पूछ सकती है -
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
आजा़दी और इसके फलसफे को लेकर यह आलोचनात्मक रवैया फ़ैज के प्रगतिशील रूझान के कारण ही पैदा हुआ था, यह गौरतलब है कि जब 1936 में सज्जाद जहीर, मुल्कराज आनंद आदि लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना कर रहे थे, तो उसी साल फैज ने भी उसकी एक शाखा पंजाब में स्थापित की थी, यह उनके इसी रुझान का सबूत है कि वे कहते हैं -
निसार मैं तेरी गालियों के ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म ओ जाँ बचा के चले
फैज़ अहमद फै़ज एक योद्धा शायर हैं। मज़लूमों शोषितों की लड़ाई लड़ने वाले योद्धा ही नहीं बल्कि 1944 से 1947 तक वे ब्रिटिश भारतीय सेना के भी अंग रहे। सेना में उन्हें लेफ्टिनेंट कर्नल का ओहदा हासिल था। लेकिन उनकी लड़ाई के मोर्चे अलग थे। जो आवाम के हक और हकूक की बात करता हो, वह भला किसी का ख़ून बहाने की नौकरी क्योंकर करे?
सजे तो कैसे सजे क़त्ल-ए-आम का मेला
किसे लुभाएगा मेरे लहू का वावैला
मेरे नज़ार बदन में लहू ही कितना है
चराग़ हो कोई रौशन न कोई जाम भरे
वह तो अपने वतन से भी यह पूछ सकता है कि,
तुझको कितनों का लहू चाहिये ऐ अर्ज-ए-वतन
जो तिरे आरिज़ –ए-बेरंग को गुलनार करें
कितनी आहों से कलेजा तिरा ठंडा होगा
कितने आँसू तेरो सहराओं को गुलज़ार करें
लेकिन सामूहिकता के अनुभवों और जनता की आवाज़ बन जाने के बावजूद फैज़ की शायरी में ऐसा कुछ तो मौजूद ही है जो फै़ज़ का बिल्कुल अपना है। फै़ज़ की चेतना फ़ैज़ के व्यक्तित्व से अलग नहीं है। फ़ैज़ का जीवन उनका स्वभाव, उनका अक्खड़पन और निराला अंदाज़ उनकी शायरी का भी मिज़ाज है।
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के
वह जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
उनके इस मिज़ाज को सत्ता कभी तोड़ नहीं सकी । उनपर मुकदमे चले, उन्हें जेल की सलाखों के पीछे डाला गया, उन्हें देश निकाला दिया गया। अपने वतन से दूर अंजाने प्रदेश में भी उन्होंने अपने मिज़ाज का सौदा नहीं किया -
हर मंजिल-ए-ग़ुरबत पे गुमाँ होता है घर का
बहलाया है हर गाम बहुत दर-ब-दरी ने
ये जामा-ए-सद-चाक बदल लेने में क्या था
मोहलत ही न दी 'फ़ैज़' कभी बख़िया-गरी ने
1980 के दशक में फ़ैज़ भारत आये थे। इलाहबाद विश्वविद्यालय के बुलाने पर। वहां इलाहाबाद के साहित्यकारों ने उपन्यासकार विभूति नारायण राय के आवास पर उनकी सोहबत का लुत्फ़ उठाया था। वहां लोगों ने उनके ज़ुबान से उनके नग़में सुने। उस महफ़िल में कहानीकार रवीन्द्र कालिया भी थे। उनका मानना था कि फ़ैज़ जितने बड़े और शानदार शायर थे, अपनी नज़्मों को वे उतने ही बुरे अंदाज़ में पढ़ते थे। हो सकता है कालिया जी की बात सच हो, लेकिन वह पढ़ने के अंदाज़ की बात है, जहां तक जीने के अंदाज़ की बात है तो फ़ैज़ का अंदाज़े बयां यह है -
माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त घड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त इक ही घड़ी है
हिम्मत करो जीने को तो इक उम्र पड़ी है
(लेखक हिंदी के जाने-माने कथाकार हैं)
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